हिंदी के दलित लेखकों की कहानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन
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Abstract
21वीं सदी के दौर में भी गाँव-देहात और नगरों महानगरों में दलितों की झुग्गी-झोपड़ियों में बेहद निरक्षरता, निर्धनता, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, जानलेवा बीमारियाँ, व्यसनाधीनता, अमानवीय रूढ़ि-परंपरा, निर्मम और क्रूर अंधविश्वास की दासता मौजूद है। बेरोजगारी में दिन-रात व वक्त-बेवक्त बेगारी और पुश्तैनी मजदूरी करना तो दलितों की मजबूरी और कमजोरी रही है, इसे नकारने पर गाली-गलौज और बेइज्जती को सहना पड़ता है। अगर इस अन्याय के खिलाफ दलित विद्रोह करे तो इस विद्रोह को कुचलने का सवर्णों के लिए दलितों का सामाजिक बहिष्कार प्रभावी हथियार रहा है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी दलित समाज की दुर्दशा क्यों बनी हुई है? क्या वर्तमान समय में समाज सुधारकों एवं दलित आंदोलनकर्मियों द्वारा दलित उत्थान और उद्धार के उद्देश्य से जो भी प्रयास किए जा रहे है, उस से दलितों की स्थिति में कोई परिवर्तन आया है? क्या स्वयं दलित अपनी व्यथा-वेदनाओं से मुक्त होने के लिए कोई भूमिका निभा रहे हैं? जब तक दुनिया में दलितों के शोषण, उत्पीड़न की समस्या व्यापक रूप में मौजूद है, तब तक इस शोषण, उत्पीड़न के तंत्र पर विचार-विमर्श होना चाहिए और इस के समाधान के बुनियादी कारणों को भी तलाशना चाहिए। हिंदी के दलित कहानीकारों ने अपनी कहानियों के विषय में उपरोक्त तथ्यों को अभिव्यक्त किया है। इस शोध विषय में शोधकर्ता “हिंदी के दलित लेखकों की कहानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन” किया है।